सोमवार, 25 जनवरी 2016

शेर


पड़ लता हूँ चेहरों को किताबों की तरह
हमे उनके इश्क ने इतना काबिल बनमा दिया


शीश महलो में बेनकाब न जाना कभी
कुछ आईने यु ही  चटक जायगें


चराग जलाये  थे ये समझ कर की रोशनी  होगी
पर कितने पतंगे जलेगें  ये कभी सोचा ना था

 वर्षो  पुराने जख्म  उभर आये
एक उसके हेल दिल पूछ लेने से

 वो पलके झुककर शिकार करते है
    निगाहे उठेगी तो क्या होगा


ये दुनियादारी  और कुछ तजुर्बे  बता गयी
ये गरीबी हमे क्या क्या ना सिखा  गयी


गर्दिश में महकदे जा पहुचा  था एक बार
मुझे दो चार वर्ष  शराबी कहा लोगो ने

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें