सोमवार, 25 जनवरी 2016

          गजलें 

  1

  अपना  जी बहला रहा हूँ
  नाम लिखकर  मिटा रहा  हूँ

आईना अपने सामने रखकर
 तुझको उससे हटा रहा हूँ

नाज जिसके बहुत उठाये
अब गम भी उसके उठा रहा हूँ



2

बस  ऐसे ही गुजरा करते है
तुम्हे छुप छुप निहारा करते है

लड़ने की चाहत इतनी है
जीती बाजी हरा करते  है

आदत ही नही है उन्हे लोटने  की
हम फिर भी  पुकारा करते है

बदनाम करने के लिए ही सही
वो जिक्र  तो हमारा करते करते है





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