कवि वैभव बेख़बर
आज यहाँ है कल उधर है
पर खत्म कहाँ ये सफर है
वो मंजिल उतनी ही सहज होगी
कठिन जितना जिसका सफर होगा
फुटपात पे ये क्यो ना सोच पाये हम
घर के अंदर भी एक घर होगा
पाने खोने का गिला क्या करें
ये तमाशा तो यहाँ उम्रभर होगा
ख्वाब मे भी हमने सोचा ना था
ये गम इतना हसीं हमसफर होगा
आज यहाँ है कल उधर है
पर खत्म कहाँ ये सफर है
वो मंजिल उतनी ही सहज होगी
कठिन जितना जिसका सफर होगा
फुटपात पे ये क्यो ना सोच पाये हम
घर के अंदर भी एक घर होगा
पाने खोने का गिला क्या करें
ये तमाशा तो यहाँ उम्रभर होगा
ख्वाब मे भी हमने सोचा ना था
ये गम इतना हसीं हमसफर होगा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें