सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

कवि वैभव बेखबर



ना मौसमों  का कोई ठिकाना  है
इन परिंदों  को भी उड़ जाना  है


गर हुनर है पंछी  को उड़ने का
सय्याद का भी अनोखा निशाना है


वो देखे ना देखे  उसकी  मर्जी
आईने को  तो उल्फ़त  निभाना है



यूं  गम ए जुदाई मे ना रह बेखबर
छोड़ सासों  को भी  एक दिन जाना है 
  कवि वैभव बेख़बर


आज    यहाँ   है  कल   उधर   है
पर    खत्म  कहाँ     ये  सफर  है

वो  मंजिल  उतनी  ही  सहज  होगी
कठिन  जितना  जिसका सफर होगा

फुटपात पे ये क्यो  ना सोच पाये हम
घर   के  अंदर  भी  एक  घर  होगा


पाने  खोने   का  गिला   क्या  करें
ये तमाशा तो यहाँ  उम्रभर होगा


 ख्वाब  मे  भी  हमने  सोचा ना था
ये गम  इतना हसीं  हमसफर होगा 

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

शेर
              ( कवि वैभव बेखबर )

       09455062093
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दवा  ना दुआ  काम आए ,ऐसी  सजा दे दे
अब तू फर्ज ना अदा कर सीधा दगा  दे दे ,




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होशो हवाश  दोनों के  उड़  जाएंगे 
एक दूजे  से जिस दिन बिछुड़ जाएंगे 


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अश्कों   को भी  आँखों  ने गहना  सीख  लिया 
ये दर्दे दिल जबसे  हमने  सहना  सीख लिया 
अब आ ही जाएगा उसमें फूलों  का हुनर 
जिसने काँटों  के बीच  रहना सीख लिया 
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ज्यादा से ज्यादा  एक और हादसा  हो जाएगा 
पर इस  इश्क से बडा और क्या  हो जाएगा 

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कहाँ  उल्फ़त  का वो जमाना  है
यहाँ  तो दाने  का भूखा दना है

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हम भी  सजदे  इबादत  करते  थे सब
कभी वो इश्क़  जब खुदा सा लगता था
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वैसे  मरने  मे कोई  नुकसान  नही  है
पर यहाँ जीना भी इतना आसान  नही है

इस भीड़  का हिस्सा बन के रह जाएगा
यहाँ जिसकी अपनी कोई पहचान नही है

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कवि वैभव  बेखबर


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जो हिम का मजा महीने मई  जून  में  है
ऐसी ख़्वाहिश  ज़िंदगी की सुकून मे है
हर दर्दे दिल को कलम का हुनर नही आता
एक शायर  कई  सदी  से  मेरे खून मे है

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अश्क  जाम  जहर  सब कुछ पीना पड़ता  है
तब कहीं जाकर ये  जख्मे दिल  भरते है



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तेरे  हवाले  कर के रूह  अपनी
दर बदर फिर रहा हूँ जिस्म लिए

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 फासले   तो बहुत है पर दिल ए दरमियाँ  नहीं

हम   अकेले  है  आज भी  पर  तन्हा  नही ,





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एक तमन्ना  जो कभी  पूरी   हो ना सकी
मै तड़पी  बहुत   मगर  कभी   रो  ना  सकी
हम  बिछड़े  तो रातों  का जुल्म हुआ इतना
उन्हे नींद  बहुत  आई  और मै  सो ना सकी ,


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आकार बुझा  ही दो ये चराग  ए उम्मीद
तेरे लिए तन्हा यहाँ कोई और भी है





अब वो राह चलते  मिले तो नजर  चुराते है
कभी  मुझे  देखने की  जिन्हे आदत सी थी


हम  सब कुछ लुटा  बैठे  है किसी  की चाहत में
वरना  इस ज़िंदगी  के कुछ  अपने भी अरमान थे





जिसमे  बनने  बनाने  का कोई    हुनर  ना था
मैंने  खुद  को मिटाया  बहुत  है उसके   लिए 
   वैभव  बेखबर /


वो  बरिसों  में  भीगे  तो  मुझे  बादल   बना  देना
उनकी  आखों  मे सज  सकूँ वो काजल बना देना
या  रब  उन्हे  देखे   बगैर  मै  जी   नही  सकता
उसके  दूर जाने  से पहले  मुझे पागल बना  देना ,








चलते  चलते  यूं  ही  ठहर  गए  थे
कई  सपने  आखों  मे संवर  गए थे
ये बात और  है की उन्हे खबर ना हुई
पर हम इश्क मे हद से गुजर गए थे ,/





कई  डगमगाते  कदमों  को  सँभाला मैंने
था  शौक   ही  कुछ   ऐसा   पाला  हमने
एक मुद्दत  से अंधेरा  इसलिए साथ में है
एक सदी भर लुटाया  था उजाला हमने /







कवि वैभव कटियार  कानपुर


कदम  कदम  पे जिस्मों जाँ  कुर्बान  होता है
राह ए इश्क  मे चलना  कहाँ आसान होता है


गर हर रोज  एक  कली  फूल  बनती है
तो हर रोज एक चमन बीरान  होता है 
ये  गम  और  भी मुझको   भाता  चला   गया
वो चोट  देकर  दिल पर मुस्कराता चला गया
मेरी  तरह  ना भटके  कोई मेरे बाद आने वाला
मै  हर  मोड़  पर चिराग  जलाता  चला गया 



  कवि वैभव  बेखबर



नजरिए  से समंदर  को प्यासा  भी देखो
निराशा  के अंदर कभी आशा भी देखो
यहाँ क्या खोना क्या पाना  किसे पता
मेले  में आए हो तो तमाशा  भी देखो




इस  रंग ए मुहब्बत  में सब अनायास बन गया
ये पतझड़  का मौसम  भी मधुमास  बन गया
बारिश ए मुहब्बत  में भीगें तो हम दोनों  थे
वो पारो  ना बन सकी पर  मै देवदास बन गया 
  वैभव कटियार



सब प्रश्न हमारे  हल  हो गए
जबसे  आप गजल  हो गए

दलदल  मे बहुत जिया है जिया
हम यूं ही  नहीं कमल  हो गए


दुनिया  ने पत्थर  बना दिया  था
मिले आप  से  तो तरल  हो गए

भूल गए  अखलाक    वो   सारे
दलाली  में जबसे  सफल हो गए 
कवि वैभव बेखबर 


तेरी खुशबू  का  ऐसा  असर  हो गया 
फलों   से   लटपत शजर  हो गया 
एक तस्वीर तेरी लगाई थी दीवार पर 
ताजमहल सा हमारा घर हो गया 




हो बस एक दूजे  मे घुल जाने की चाहत 
फिर पानी भी बिकता है दूध के भाव 


यूं  ही  वो  तराना   भूल ना जाना 
तुम हसना हसाना भूल ना जाना 
ज़िंदगी दिखती है तुम्हारी आखों में 
तुम कहीं  नजरे  मिलाना भूल ना जाना