सोमवार, 12 अगस्त 2019

शेर-ओ-शायरी, WRITTEN BY कवि वैभव बेखबर


नज़रों को सिखाना ये हुनर भी
अब आदमी मुखौटा पहनता है


दर्द कैसे सजाये जाते है
आ कभी देख मेरी आँखों में


सलीके की उर्दू तक न आये जिनको
वाही लोग ज्यादा ,फारसी बोलते हैं


कई चिरग देख डाले  उजाला न मिला
कोई मिरे दिल को चाहनेवाला न मिला
बागों को उजाड़कर पश्ताये हम बहुत
गमलों में फूल कोई खुश्बुवाला न मिला


कि हमें कोई गम नहीं
गम तो ये भी है उन्हें

कुछ क़दम डगमगाए ,कुछ राहें भटकातीं रहीं
दिल यकीन करता रहा ,निगाहें फ़रेब खाती रहीं


दरार मिटाने के बहाने कुछ लोग
दरमियाँ हमारे दीवार बना गये


सब मिलकर रहते,कहीं हिंदुस्तान जैसी प्रीत न होती
साथ निभाता मुसलमान तो बिकती यहाँ बीप न होती
अगर यहाँ सियासत इतनी घिनौनी न होती बेखबर
तो अज़ान से हिन्दू लोंगो को तकलीफ न होती


देखते थे तमाम दीवाने,देखते ही रह गये
एक दौलत वाला उन्हें अपने घर ले गया

सितारे आसमां से उतरना चाहते है
एक चाँद ज़मीं पर देखा है जबसे



वैसे तो तमाम निगाहों में इश्क़ की शमा जलती है
मगर चाहत को चाहत बड़ी मुश्किल से मिलती है


तमाम ख़्वाब डूब जाते है इश्क़ के सैलाब में
है इतना आसां नहीं आँखों कका समन्दर होना


दैरो-हरम के सजदे इबादत का तो पता नहीं
मगर हमने बुजुर्गों की दुआओं का असर देखा है


मुसलसल किये जा रहा है सितम पे सितम वो
और वक्त वक़्त पर हाल ए दिल भी पूछता है

खेत सूखे हैं और बंज़र आँखों में पानी है
या ख़ुदा अन्नदाता की क्या यही कहानी है


इस बनावटी दौर में जाने कितने दिल टूटे हैं
यहाँ हर कहानी सच्ची है मगर किरदार झूठे हैं


अहसास कराये लम्हा लम्हा ख़ुशी का
दर्द बड़ा हसीन तोहफ़ा है ज़िन्दगी का


तमाम मसाइल पे बात करनी थी वरना
हम तुमको भी लिखते ग़ज़ल की तरह

तमाम किरदारों से जुड़ी जिंदगानी है
हर किरदार की अपनी एक कहानी है
इस समन्दर को सब मालूम है बेख़बर
कि यहाँ किस गड्ढे में कितना पानी है

आदमी आदमी का खून पी रहा है
हमने पी शराब तो बुरा कह दिया

तलब थी तब जिन्दगी की रवानी कुछ और थी
अह पगले तूने अपनी प्यास बुझाकर बुरा किया


बेवाओं से इश्क करते हैं
हमने देखें हैं कुछ पागल लोग

कभी पागल होने को जी चाहे अगर
दिल किसी के इश्क में लुटा दीजिये

तमाम ग़मों ने आकर आशनाई की
जब यार ए ज़िगर नें बेवफाई की


ख़ुदा बनने की कोशिश में है आदमी
अब आदमी होना ज़रा मुश्किल भी है

हो गया बाजारू आदमी में एक बाज़ार
इस दौलत ने रिश्तो की कीमत गिरा दी


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असाढ़ सावन की बरसात तुम्हारे घर आई
और हम करते रहे गुज़ारा बूंदा-बांदी  से


एक जाता है दूसरा चला आता है
बुढापे में मर्ज़ भी रिश्तेदार हो गया

ज़हर खा रहे हैं लोग
कहर ढा रहे है लोग  
पड़ा है गाँव में अकाल क्या
शहर जा रहे हैं लोग

नफरतों ने तलवारें और बंदूके बनायीं होंगी
मुहब्बत तो ज़हर भी मीठा के देती है

लौटकर जब परिंदा घर आया शाम को
वो पेड़ ही न रहा,आशियाना जिसपे था ,

वफाये सिसक रहीं हैं बंद कमरों में
और बेवफा फिर नये शिकार की तलाश में है

तुम ज़मीर बेचकर शर्मिदा हो बेखबर
लोग खुश हैं यहाँ अखबार बेचकर

राह है मंजिल है सलामत है पैर भी
बेखबर हम खुश हैं तुम्हारे बगैर भी

अगर मुह्हबत हो कलम से चले आइये
ये दिल आशिकी के काबिल न रहा

तमाशा सब मुक्कदर के दौर का है
जो कल था मेरा आज किसी और का है

उस दरिया का कुछ पता नही
अब तो गज़ले प्यार बुझाती हैं


तमाम मसाइलों पर बात करनी थी वरना
हम तुमको भी लिखते ग़ज़ल की तरह,


अवाम को रोटी के लाले पड़े
और सियासी,मुल्क खा रहे हैं


दिल देखता झूठे  ख्वाब कब तक
ग़मों पर रखता नकाब कब तक
खा ही लिया आज ज़हर बेखबर
वो पीता आखिर शराब कब तक


लाख ज़तन कर डाले तुम्हे भूलने के
फिर याद करना ही मुनासिब समझा

दौलत है तो मिल जायेगा
अब इश्क यहाँ व्यापर  है


कीचड़ में खज़ाना ढूढ़ लेंगे
पीने वाले मयखाना ढूढ़ लेंगे
अगर तुझे जाना है   तो जा
हम अपना ठिकाना ढूढ़ लेंगे


कुच्छ इस कदर बसे हो तुम मेरी नजरो में
खुद को भूल गये होते गर आइना न होता


उसे भुला चूका हूँ ,मैं ये जानता हूँ मगर
याद भी तो कुछ नहीं आता ,उसके सिवा   

जो मंजिल का सफ़र था ,जाने क्या हुआ
अब तेरी ओर ही लता है हर रास्ता मुझे

दुनियां तो चाहती थी अदाकार बनाना
एक हम ही न बदल सके किरदार अपना

गर मालुम होती मेरे ज़ख्मों की गहराई
ज़हर लेकर आते तुम,मरहम की जगह

बेखबर ,बेवजह दिल की ज़मी ,बंज़र मत करना
उसे जाना कहीं और हैं ,तेरा ठिकाना कहीं और है


गर निकल आये तो घर के मंदिर में लगाऊ
जो तेरी तस्वीर आखों में बसा रक्खी है

ज़ुल्म करके ज़ुल्म का हिस्सा नहीं होने देते
ज्यो रईश ,महगाई को सस्ता नहीं होते देते
बुराएयों को बहुत देते है बदुआयें भी
लोग ही यहाँ,अछ्चे हो अच्चा नहीं होने देते



ढल गयी ये उम्र भी  वक़्त से पहले कुछ
जिम्मेदारियों ने बाप को बुढहा बना दिया


ख़त्म हो गयी तुझे पाने की चाहत
इक्ष में कुछ बचा भी अब खोने को

असाढ़ सावन की बरसात तुम्हारे घर आई
और हम करते रहे गुज़ारा बूंदा बांदी से 



अगर मालुम होता ,दर्द गरीबी बेबसी लाचारी का
सियासतदानों तुम इतनी घिनौनी सियासत न करते


कागज़ के मयकदों में, कुछ लफ्ज़ और कलम
ग़ज़ल को जाम बनाकर पि रहे है मुद्तों से हम


कि चाँद भी लगता है रोटी की तरह
गरीबी को इस कदर,सताता है पेट

रात तो कभी दिन अच्चा नहीं लगता
भुत सूना-सूनापन अच्चा नही लगता
कभी तुम भी चले आओ यादों की तरह
यादों का अब मौसम अच्चा नहीं लगता


बन गये हो तुम  आदत मेरी
और आदत जल्दी जाती नहीं


हम सब भाई बहन बिखर रहे पन्नों की तरह
जबसे बाप सा कवर,किताब से निकल गया



मंजिलों का मिजाज़ हमसे मत पुच्छो
सफर चीज़ क्या है,अभी सीख रहा हूँ


तुमको भी लैला नहीं मिलेगी
है मजनू जैसी औकात तुम्हारी


मासूम नज़र आती है कुछ बंज़र आँखे
शायद टूटे है ख्वाब अहिस्ता अहिस्ता


अब ख्वाब भी कोई आता नही
बस गये हैं कुच्छ हादसे आंखों में

रोटी की खबर नहीं,रहने को घर नहीं
ऐसे भी लोग ज़ि रहे हैं जिंदगी यहाँ

उसने आसुओं को आँखों में उबाला नहीं होगा
दिल में इश्क का सुनहरा रोग पला नहीं होगा
इक सूरज नया उगाओ, अब तो अच्चा यही होगा
इन बुझते हुए चिरागों से ,उजाला नहीं होगा


इंसानियत तो बहुत चाहती है मगर
ये मज़हब हमें भाई भाई नही होनें देते   


बेखबर इस ज़िन्दगी के घर में
हसीं,ख्वाबो के सिवा कुछ नहीं



बड़े बड़े सुरमा टूटू जाते है
वक्त की चपेट में जब आते है


बेवफाओ का दौर चल रहा है बेखबर
या तो मुहब्बत का मुकद्दर ख़राब है


खुद की सांसे खुद के बस में नहीं,मगर फिर भी
आदमी जाने किस बात का,गुरुर लिए फिरता है



हम जिसके खातिर सज़ा रहे थे
सब थोड़े उसी ने ख्वाब हमारे



बेवफाओ पर भी कोई कानून बना दो
बहुत मासूम दिल,बर्बाद हो रहे हैं


जो गुज़र गये,बुजुर्गो की याद दिलाते है
घर में जो कुच्छ पीतल ,गिल्ट के बर्तन हैं


अगर आपके दिल में कयाम मिल जाता
तो इस मुसाफिर को थोडा आराम मिल जाता



मोम की बैसाखियाँ,थमा दी अँधेरी रातों में
बेखबर हम सहारा लेते या उजाला करते


ठिकाना मिल गया होता उस मुसाफिर हो
मगर उसने कभी मेरी आँखों में देखा नहीं


मतलब निकल जाए तो रास्ता बदल लेते है
लोग आजकल इसी को तहज़ीब कहते है


उस पार से,इस पार के लोंगो को जोड़ता था
इस बरस के सैलाब में,वो पुल भी ठह गया



कि खुद को तुझमे ढूढू में
इतना भी मत करीब आ


बेवफाई कर मगर छोड़ के मत जा
बस तडपता रह मुझे पागल होने तक



तन्हाई की सुलगती,जमीनों पर
बे-मौसमी बरसातों का असर नहीं होता



आजकल जीत हार की बातें है
दुःख-सुख कुछ प्यार की बातें हैं
दौलत है तो दुनियां है बेखबर
बाकी सब बेकार की बातें  हैं




तुम घर आये तो हर अश्क का हिसाब मांगेगी
हमारे कमरे की दीवारें भी पहचानती हैं तुम्हे


घर में नही गिरेंगे आसमान से हीरे मोती
इस समन्दर को तुम भी खंगालों यारो















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