शनिवार, 31 अक्टूबर 2015



खुद को तौलता हूँ


 कभी  धूप  मे खामोश रहा तो कभी छांव मे खौलता हूँ
इस शहर के पैमाने में मैं रोज़ ख़ुद को तौलता हूँ।

 मदहोश चादनी रात  में कभी बेवजह की बात में
बेशुमार खुद मे डूबकर कभी बेवजह  बोलता हूँ।

कभी आखो के आस में तो कभी भूख के अहसास में
इस दर्द-ए-दिल के ख़ातिर ज़हर जिया में घोलता हूँ।

इस शहर के पैमाने में मैं रोज़ खुद को तौलता  हूँ।


- वैभव बेख़बर
आखों मे आश्कों को.... भरा रहने दो
याद उनकी दिल मे...... जरा रहने दो
अब दुआ दबा दया ....  ना करो  यारो
मुहब्बत का ज़ख्म है....  हरा  रहने दो                ( कवि वैभव बेखबर)






पड़ लेता हू चहरों को   ...किताबों की तरह
हमे उसके इश्क ने इतना काबिल बना दिया ,    
 ।




गर तुझे जाना है तो जा  ।   ......... कल कोई और आएगा इस बस्ती मे ।



      कवि वैभव बेखबर                 KAVI VAIBHAV BEKHABAR