kavi vaibhav katiyar
ग़ज़ल एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह है। इसके पहले शेर को मतला कहते हैं। ग़ज़ल के अंतिम शेर को मक़्ता कहते हैं। मक़्ते में सामान्यतः शायर अपना नाम रखता है/ग़ज़ल के शेर में तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है।
सोमवार, 2 नवंबर 2015
शनिवार, 31 अक्टूबर 2015
खुद को तौलता हूँ
कभी धूप मे खामोश रहा तो कभी छांव मे खौलता हूँ
इस शहर के पैमाने में मैं रोज़ ख़ुद को तौलता हूँ।
मदहोश चादनी रात में कभी बेवजह की बात में
बेशुमार खुद मे डूबकर कभी बेवजह बोलता हूँ।
कभी आखो के आस में तो कभी भूख के अहसास में
इस दर्द-ए-दिल के ख़ातिर ज़हर जिया में घोलता हूँ।
इस शहर के पैमाने में मैं रोज़ खुद को तौलता हूँ।
- वैभव बेख़बर
आखों मे आश्कों को.... भरा रहने दो
याद उनकी दिल मे...... जरा रहने दो
अब दुआ दबा दया .... ना करो यारो
मुहब्बत का ज़ख्म है.... हरा रहने दो ( कवि वैभव बेखबर)
पड़ लेता हू चहरों को ...किताबों की तरह
हमे उसके इश्क ने इतना काबिल बना दिया ,
।
गर तुझे जाना है तो जा । ......... कल कोई और आएगा इस बस्ती मे ।
कवि वैभव बेखबर KAVI VAIBHAV BEKHABAR
याद उनकी दिल मे...... जरा रहने दो
अब दुआ दबा दया .... ना करो यारो
मुहब्बत का ज़ख्म है.... हरा रहने दो ( कवि वैभव बेखबर)
पड़ लेता हू चहरों को ...किताबों की तरह
हमे उसके इश्क ने इतना काबिल बना दिया ,
।
गर तुझे जाना है तो जा । ......... कल कोई और आएगा इस बस्ती मे ।
कवि वैभव बेखबर KAVI VAIBHAV BEKHABAR
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