नज़रों को सिखाना ये हुनर भी
अब आदमी मुखौटा पहनता है
दर्द कैसे सजाये जाते है
आ कभी देख मेरी आँखों में
सलीके की उर्दू तक न आये
जिनको
वाही लोग ज्यादा ,फारसी
बोलते हैं
कई चिरग देख डाले उजाला न मिला
कोई मिरे दिल को चाहनेवाला
न मिला
बागों को उजाड़कर पश्ताये हम
बहुत
गमलों में फूल कोई
खुश्बुवाला न मिला
कि हमें कोई गम नहीं
गम तो ये भी है उन्हें
कुछ क़दम डगमगाए ,कुछ राहें
भटकातीं रहीं
दिल यकीन करता रहा ,निगाहें
फ़रेब खाती रहीं
दरार मिटाने के बहाने कुछ
लोग
दरमियाँ हमारे दीवार बना गये
सब मिलकर रहते,कहीं
हिंदुस्तान जैसी प्रीत न होती
साथ निभाता मुसलमान तो
बिकती यहाँ बीप न होती
अगर यहाँ सियासत इतनी
घिनौनी न होती बेखबर
तो अज़ान से हिन्दू लोंगो को
तकलीफ न होती
देखते थे तमाम दीवाने,देखते
ही रह गये
एक दौलत वाला उन्हें अपने
घर ले गया
सितारे आसमां से उतरना
चाहते है
एक चाँद ज़मीं पर देखा है
जबसे
वैसे तो तमाम निगाहों में
इश्क़ की शमा जलती है
मगर चाहत को चाहत बड़ी
मुश्किल से मिलती है
तमाम ख़्वाब डूब जाते है
इश्क़ के सैलाब में
है इतना आसां नहीं आँखों
कका समन्दर होना
दैरो-हरम के सजदे इबादत का
तो पता नहीं
मगर हमने बुजुर्गों की
दुआओं का असर देखा है
मुसलसल किये जा रहा है सितम
पे सितम वो
और वक्त वक़्त पर हाल ए दिल
भी पूछता है
खेत सूखे हैं और बंज़र आँखों
में पानी है
या ख़ुदा अन्नदाता की क्या
यही कहानी है
इस बनावटी दौर में जाने
कितने दिल टूटे हैं
यहाँ हर कहानी सच्ची है मगर
किरदार झूठे हैं
अहसास कराये लम्हा लम्हा
ख़ुशी का
दर्द बड़ा हसीन तोहफ़ा है
ज़िन्दगी का
तमाम मसाइल पे बात करनी थी
वरना
हम तुमको भी लिखते ग़ज़ल की
तरह
तमाम किरदारों से जुड़ी
जिंदगानी है
हर किरदार की अपनी एक कहानी
है
इस समन्दर को सब मालूम है
बेख़बर
कि यहाँ किस गड्ढे में
कितना पानी है
आदमी आदमी का खून पी रहा है
हमने पी शराब तो बुरा कह
दिया
तलब थी तब जिन्दगी की रवानी
कुछ और थी
अह पगले तूने अपनी प्यास
बुझाकर बुरा किया
बेवाओं से इश्क करते हैं
हमने देखें हैं कुछ पागल
लोग
कभी पागल होने को जी चाहे
अगर
दिल किसी के इश्क में लुटा
दीजिये
तमाम ग़मों ने आकर आशनाई की
जब यार ए ज़िगर नें बेवफाई
की
ख़ुदा बनने की कोशिश में है
आदमी
अब आदमी होना ज़रा मुश्किल
भी है
हो गया बाजारू आदमी में एक
बाज़ार
इस दौलत ने रिश्तो की कीमत
गिरा दी
असाढ़ सावन की बरसात
तुम्हारे घर आई
और हम करते रहे गुज़ारा
बूंदा-बांदी से
एक जाता है दूसरा चला आता
है
बुढापे में मर्ज़ भी
रिश्तेदार हो गया
ज़हर खा रहे हैं लोग
कहर ढा रहे है लोग
पड़ा है गाँव में अकाल क्या
शहर जा रहे हैं लोग
नफरतों ने तलवारें और
बंदूके बनायीं होंगी
मुहब्बत तो ज़हर भी मीठा के
देती है
लौटकर जब परिंदा घर आया शाम
को
वो पेड़ ही न रहा,आशियाना
जिसपे था ,
वफाये सिसक रहीं हैं बंद
कमरों में
और बेवफा फिर नये शिकार की
तलाश में है
तुम ज़मीर बेचकर शर्मिदा हो
बेखबर
लोग खुश हैं यहाँ अखबार
बेचकर
राह है मंजिल है सलामत है
पैर भी
बेखबर हम खुश हैं तुम्हारे
बगैर भी
अगर मुह्हबत हो कलम से चले
आइये
ये दिल आशिकी के काबिल न
रहा
तमाशा सब मुक्कदर के दौर का
है
जो कल था मेरा आज किसी और
का है
उस दरिया का कुछ पता नही
अब तो गज़ले प्यार बुझाती
हैं
तमाम मसाइलों पर बात करनी
थी वरना
हम तुमको भी लिखते ग़ज़ल की
तरह
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